वार्ता (धरती और पंछी के मध्य )

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उड़ता हुआ परिंदा हूँ
किसकी मुझे तलाश है
ओज लिया है सीने में
उड़ने को सारा आकाश है
किया जीवन में कुछ की नहीं
अनसुलझी, अनकही अद्भुत ये जो प्यास है
उड़ता हुआ परिंदा हूँ
किसकी मुझे तलाश है

निकला एक दिन नीड से
बातें करता बादलों की भीड़ से
जिंदगी की जुस्तजू से हार कर थक गया हूँ
साँसे चल रही है में तो कब का रुक गया हूँ
जब सोचता हूँ कुछ देर विश्रांति पाने को
जीवन की कड़िया जोड़कर राग नया बनाने को
नव जीवन नवआस भरी नवपथ पर पग बढ़ाने को
भौतिकता की आड़ में हम सब कुछ भूल चुके हैं
परिंदो की क्या कहे, धरती को शत शूल चुभेहैं
कहूँ क्या में तुझसे, बस नहीं तेरा यहां ठिकाना है
विटप की क्या बात कहूँ मेरे अंक में अब कारखाना है

ना जाने कौन है तू, और क्या तुझे यहाँ पाना है
परिवरतन की इस बेला में, तू सबसे अंजाना है
उन्नति की होड़ में मुश्किल वक्त निकालना है
दुर्लभ नहीं कारखाने, मुश्किल तो तेरे लिए नीड बनाना है
और भला में क्या बोलूँ
यह संसार नहीं सपनो की नीलामी है
गर समझ सका तो है सही वार्ना जिंदगी के मोड़ पर बेबस तेरी जवानी है
लौट जा तू ए परिंदे उस द्देश को
मान ले बात मेरी, सुन ले मेरे सन्देश को
अपनी आकांक्षा ओ के तले, दब रहा इन्सान है
हाड़ पंजर की इस दुनिया में, जिन्दा हुई शमशान है
क़र्ज़ कई हैं मुझ पर तेरे,तुझसे मेरी पहचान थी
हरित वसुधा थी मैं तब , हरियाली मेरी शान थी
बूढी हुई में अब , नहीं यह कोई बहाना है
निश्चिंत है तू , मुश्किल तेरा अशराय पाना है
ना जाने कौन है तू ,कैसी तेरी ये प्यास है
निश्छल तू, मंजिल तेरा सारा आकाश है

 

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