इक तलक वो आएंगे

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एक चिड़िया अपने बच्चों को, ममता-से सहला रही थी

छोटे छोटे तिनकों को चुन वो, अपना नीड़ बना रही थी

अगले दिन जब गुजरा वहां से

चिड़िया बच्चों को दाना खिला रही थी

बेखबर- बेरहम दुनिया से

अपनी ही दुनिया बना रही थी

कुछ दिन बाद वही चिड़िया, बच्चों को उड़ना सीखा रही थी

माँ- पिता और गुरु- धर्म का, फ़र्ज़ वो बखूबी निभा रही थी

कुछ अरसों जब गुजरा वहां से

कमजोर दुखी वो, न पंख संवारे

उसी नीड़ में करहा रही थी

मैंने पूछा- हे गगनपरी! कैसी चिंता जो सता रही?

भाग्यशाली हो तुम, राम- लखन की सेवा पा रही!

दुख से भरे कंठ से बोली- मैं पुत्र बिछोह को झेल रही हूँ

एकाकी इस तृण नीड़ में, यमराज की राह देख रही हूँ

पंखों में ताकत आते ही, न माने वो मेरा कहना

भर उड़ान ऊँची वो बोले, दूर-विदेश हमें है जाना

ए ऋषभ! तुम ही बोलो- परवरिश में मेरी, कमी कहाँ है होई?

सब कुछ अपना होने पर भी, क्यों अपना कहने को रहा न कोई?

कैसे बोलूं की कमी कहाँ है होई! दुख तो है की कलयुग है

माँ, आदर, सत्कार की कीमत, यहां नही है कोई!!

ममता के स्नेह को देखो,

माँ आशा का दीप जलाये बैठी है

किसी रोज थक कर वो पंछी, वापिस घर को आएंगे

घमंडता के गगन को छूकर, इक तलक वो आएंगे

इक तलक वो आएंगे…

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